एक पक्ष द्वारा अपने दायित्व पूरे करने के बाद दूसरे पक्ष द्वारा सहमति वापस नही ली जा सकती : हाईकोर्ट_*

एक पक्ष द्वारा अपने दायित्व पूरे करने के बाद दूसरे पक्ष द्वारा सहमति वापस नही ली जा सकती : हाईकोर्ट_*

केरल हाईकोर्ट ने एक उल्लेखनीय निर्णय देते हुए कहा कि जब दूसरे पक्ष ने समझौते के तहत अपने दायित्व पूरे कर दिए हों,तो उसके बाद तलाक के लिए दायर एक संयुक्त याचिका से पति या पत्नी द्वारा एकतरफा सहमति की वापसी कानून के तहत अरक्षणीय है।

न्यायालय ने इसे ”शार्प प्रैक्टिस कहा, जिसे एक पल के लिए भी सहन नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह न्याय वितरण प्रणाली में वादियों के विश्वास को चकनाचूर कर देगी और वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र का मखौल बनाएगी।”

अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि,एक बार जब पक्षकारों ने लंबित कार्यवाही में किए गए समझौते के तहत तलाक की संयुक्त याचिका दायर करने के लिए सहमति दे दी है तो उसके बाद पक्षकारों को समझौते से पीछे हटने से रोक दिया जाता है।

*जस्टिस ए एम मुहम्मद मुस्ताक और जस्टिस सीएस डायस की डिवीजन बेंच ने कहा कि, ”*

… हम मानते हैं कि एक बार जब पार्टियां एक लंबित कार्यवाही में किए गए समझौते के तहत संयुक्त याचिका दायर करने के लिए सहमत होती हैं, तो उसके बाद पार्टियों को समझौते को अस्वीकार करने से रोक दिया जाता है। इसलिए, प्रतिवादी द्वारा सहमति की एकतरफा वापसी, विशेष रूप से जब अपीलकर्ता ने समझौते के ज्ञापन में दी गई शर्तों के अनुसार अपने कर्तव्यों को पूरा कर दिया हो, केवल एक शार्प प्रैक्टिस है जिसे एक पल के लिए भी सहन नहीं किया जा सकता क्योंकि यह न्याय वितरण प्रणाली में मुकदमेबाजों के विश्वास को चकनाचूर कर देगी और वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र का मखौल बनाएगी।”

डिवीजन बेंच ‘बेनी बनाम मिनी’ के मामले पर विचार कर रही थी। इस मामले में फैमिली कोर्ट के एक आदेश के खिलाफ एक वैवाहिक अपील दायर की गई थी क्योंकि फैमिली कोर्ट ने पत्नी द्वारा अपनी सहमति वापस लेने के बाद उनकी तलाक की संयुक्त याचिका को खारिज कर दिया था।

यह संयुक्त याचिका पति द्वारा तलाक की मांग करते हुए दायर की गई याचिका की पेंडेंसी के दौरान दायर की गई थी। पति की तलाक की याचिका की पेंडेंसी के दौरान एक मध्यस्थता वार्ता करवाई गई,जिसमें पति-पत्नी ने *भारतीय तलाक अधिनियम की धारा 10 ए के तहत* तलाक के लिए एक संयुक्त याचिका दायर करने पर सहमति व्यक्त की थी। समझौते के अनुसार, पति को अपनी तलाक की याचिका वापस लेनी पड़ी और पत्नी को 10 लाख रुपये का भुगतान करने का वादा किया और इसी के साथ अपने दो बच्चों की कस्टडी भी अपनी पत्नी को सौंप दी। एक शर्त के रूप में, संयुक्त याचिका दायर करने की तारीख पर, पति ने पत्नी को 200000 रुपये की राशि का भुगतान किया। बाकी के आठ लाख रुपये छह महीने के बाद देने पर सहमति की गई क्योंकि संयुक्त याचिका पर फिर से सुनवाई छह महीने की वैधानिक प्रतीक्षा अवधि पूरी होने के बाद की जानी थी। प्रतीक्षा अवधि के बाद मामले की सुनवाई की तारीख पर, पति ने पत्नी को आठ लाख रुपये की शेष राशि का भुगतान किया। पार्टियों ने सहमति व्यक्त करते हुए हलफनामा दायर किया। कोर्ट द्वारा काउंसलिंग का आदेश दिए जाने के बाद भी, दोनों पक्ष अपने रुख पर अड़े रहे और तलाक के लिए अपनी दी गई सहमति को दोहराया। इसप्रकार फैमिली कोर्ट ने मामले पर निर्णय सुरक्षित रख लिया।

फैसले दिए जाने की तारीख से लगभग छह सप्ताह पहले, पत्नी ने एक नया आवेदन दायर किया जिसमें कहा गया था कि वह तलाक की संयुक्त याचिका से अपनी सहमति वापस ले रही है। इसके बाद, फैमिली कोर्ट ने दोनों पक्षों को फिर से काउंसलिंग के लिए भेजा। पत्नी ने सहमति वापस लेने की पुष्टि की। उस आधार पर, फैमिली कोर्ट ने तलाक की संयुक्त याचिका को खारिज कर दिया।

*फैमिली कोर्ट ने ‘हितेश भटनागर बनाम दीपा भटनागर एआईआर 2011 एससी 1637’* मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि डिक्री पारित होने से पहले किसी भी समय प्रतिवादी अपनी सहमति वापस लेने के लिए स्वतंत्र थी।

पति की अपील पर विचार करते हुए हाईकोर्ट की खंडपीठ ने पत्नी के तलाक की संयुक्त याचिका से सहमति वापिस लेने के आचरण पर आपत्ति जताई,क्योंकि पति ने अपनी तलाक याचिका वापिस ले ली थी,उसे दस लाख रुपये का भुगतान कर दिया था और समझौते की शर्तों के अनुसार पत्नी को बच्चों की कस्टडी भी सौंप दी थी।

जब हाईकोर्ट ने पत्नी के वकील से पूछा कि क्या वह अपने पति द्वारा दिए गए पैसे वापस करेगी, तो जवाब नकारात्मक था? हाईकोर्ट के सामने पत्नी का तर्क यह था कि उसने अपनी सहमति वापस ले ली क्योंकि उसके पति द्वारा दी गई राशि सहमत राशि से कुछ हजार कम थी। हाईकोर्ट ने इस तर्क को ”अपुष्ट” मानते हुए खारिज कर दिया क्योंकि यह तर्क फैमिली कोर्ट के समक्ष कभी नहीं दिया गया था।

*न्यायमूर्ति डायस द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया किः*

‘भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 2 (ई) में कहा गया है कि प्रत्येक वादा और प्रत्येक वादों का सेट,जो एक दूसरे के लिए क्षतिपूर्ति का गठन करता है,एक समझौता है। पार्टियों द्वारा पारस्परिक वादों पर सहमति दी गई थी,जो भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 51 के दायरे में आते हैं और अपीलकर्ता ने उनको विधिवत पूरा किया है। बच्चों की कस्टडी और मुआवजा प्राप्त होने के बाद प्रतिवादी उस समझौते के तहत अपने वादे को पूरा के लिए बाध्य थी अर्थात विवाह विच्छेद के लिए उसकी सहमति देने के लिए।”

न्यायालय ने कहा कि वह यह टिप्पणी करने के लिए विवश हैं कि पत्नी ने ”अपने स्वयं के गलत काम का लाभ उठाया है और गैरकानूनी रूप से खुद को समृद्ध करने का प्रयास कर रही है।”

*’प्रकाश अलुमल कलंदरी बनाम जहान्वी प्रकाश कलंदरी’ मामले में* बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा दिए गए फैसले का संदर्भ दिया गया,जिसमें कहा गया था कि जब दोनों पक्ष एक समझौते के आधार पर तलाक के लिए लंबित एक याचिका को आपसी सहमति से तलाक की याचिका में बदलने के लिए सहमत होते हैं और एक पक्ष समझौते की शर्तों को पूरा कर रहा हो तो दूसरा पक्ष एकतरफा सहमति वापिस नहीं ले सकता है।

*कोर्ट ने माना कि पत्नी को प्रिंसिपल आॅफ प्रामिसरी एस्टापल द्वारा उसकी सहमति वापस लेने से रोक दिया गया था।*

*कोर्ट ने कहा कि,*

”हमारी राय है कि प्रतिवादी द्वारा सहमति की एकतरफा वापसी कानून में अरक्षणीय है और फैमिली कोर्ट ने प्रतिवादी द्वारा दायर किए गए आवेदनों को अनुमति देकर और मूल याचिका को खारिज करके गलत किया है।”

Bureau Report
Author: Bureau Report